Sunday, November 27, 2011

कुछ अपना सा


तुम चले गए,
कोई बात नहीं,
रहते भी यहाँ,
तो कोई बात नहीं.

कोई बात हीं नहीं,
तो क्या बात हो?
कोई बात भी हो,
तो क्या बात हो?

क्यूँ जीभ को नाचना,
क्यूँ साँस को भागना,
क्यूँ दांत को दिखाना,
क्यूँ कंठ को जगाना?

वैसे रुक जाते तो ठीक था,
आज आंखें नम न होतीं,
चले भी गए तो ठीक हीं है,
उदासी हीं सही, कुछ अपना सा है.