Thursday, December 24, 2009

Eternal Wait

Another year gone by
and I kept waiting
for her to come
and discover hidden me.

Sometimes I feel her breath,
get touched by her warmth,
still to happen when I hug her with my full arms.
closing our eyes,
feeling the world under our feet,
and flying high in the sky,
together, holding tight.

I saw her once, approaching me,
and disappearing,
leaving me alone and wondering,
where she came from and where she went to.

May be she wanted me to follow her,
But I, the laziest arse around, chose to wait for her to come back.


Like my love and hope, my wait is also eternal,
I am still waiting......

Sunday, December 20, 2009

कल्पना या हक़ीकत

तु कल्पना है या हक़ीकत, मै तो बस बहे जा रहा हूँ.
ना सुध है ख़ुद की ना हीं जमीं की, मै बिन पंख उड़े जा रहा हूँ.

बांध ले अपनी डोरी से बना ले मुझे पतंग.
इस बेढंगी जिंदगी को देदे नए ढंग.
तु नहीं तो कोई और नहीं, तेरी डोर नहीं तो कोई डोर नहीं.
उड़ता हीं रहूँगा इसी तरह.

तु कल्पना है या हक़ीकत, मै तो बस बहे जा रहा हूँ.
ना सुध है ख़ुद की ना हीं जमीं की, मै बिन पंख उड़े जा रहा हूँ.

बचपन से मै तुमसे बातें करता आ रहा हूँ.
अंधियारे में तेरा साया तकता आ रहा हूँ.

इस उदास मन को तु देदे नए उमंग.
ठहरे हुए पानी में लहरा दे तरंग.
तु नहीं तो कोई और नहीं, ख़ुद से आना कोई ज़ोर नहीं.
राहें देखता हीं रहूँगा इसी तरह.

तु कल्पना है या हक़ीकत, मै तो बस बहे जा रहा हूँ.
ना सुध है ख़ुद की ना हीं जमीं की, मै बिन पंख उड़े जा रहा हूँ.

Friday, November 13, 2009

लाइफ झंड बा, फिर भी घमंड बा.

दिन भर काम,
ऑफिस आने जाने में ट्रैफिक,
गाडियों की हौं पौं,
ऊपर से इतना धुआं और धुल...

कुर्सी पे बैठे बैठे,
तन से ज्यादा मन थका हुआ,
किबोर्ड की ठक ठक,
और आँखे सिर्फ कंप्यूटर पे...

नोट तो कमाए,
लेकिन आनंद उठाये, इसके लिए न वक़्त है न शारीर में उर्जा.
फिर भी एक बात कहेंगे भैया,
लाइफ झंड बा, फिर भी घमंड बा.

बुराई

कबीर जी ने कहा -

बुरा जो देखन मै चला , बुरा न दिखा कोय.
जो दिल ढूंढा अपनों , मुझसे बुरा न कोय.


आजकल की जनता -

बुरा जो देखने मै निकला,
हर एक चीज में बुराई पाया.
लोग कहते हैं भगवान परफेक्ट हैं ,
मै कहता हूँ कि उनकी यही बुराई है कि उनमे बुराई नहीं.

Sunday, August 9, 2009

सवंरिया बादल बन के आ

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बादल बन के आ सवंरिया, बादल बन के आ.
बादल क घोड़वा, बदले का दुलहा.
बरसा द पनिया का फुलवा, सवंरिया बादल बन के आ.

तोरी कनिया पियासल बैठल है.
सावन महिना तोहरे बिन तरसल है.
कईसे जिहें तोहार पुतवा, सवंरिया बादल बन के आ.

सावन महिना बीत गईल, जोहत जोहत बाट.
अब कबले अईब तू सजना, जब उठ जई हमार खाट.

सवंरिया बादल बन के आ.

Saturday, June 27, 2009

जीभ की नमीं

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दादाजी ने कहा था -
" जीभ की नमीं बनाये रखना.

जीभ में नमीं हो, तो हर बात में नमीं हो.
मुस्कान में नमीं हो, जज्बात में नमीं हो.

जैसे नम जमीं, पेंड पौधे की जड़ को शितलता देते हैं और वो फल फुल उठते हैं और एकदम हरे भरे खिलखिलाते रहते हैं.
वैसे हीं अगर बात में नमीं हो तो लोगो का मन शितल होता है और वो बहुत खुश और खिलखिलाते रहते हैं."

हाय रे दुर्भाग्य!
Global warming की वजह से नमी बनाये रखना कितना मुश्किल हो गया है.
सोचता हूँ, मेरा Boss इतना झुंझलाया हुआ कड़वा क्यूँ बोलता है.
क्या करे बेचारा - Global warming की मार के बाद जो भी नमीं बची रह गयी होगी वो अपने Boss की "जड़" को शितल करने में सुखा दिया होगा.
कोई आश्चर्य की बात नहीं वो उन्ही क पदोन्नति क्यू करता है जो सामूहिक रूप से अब उसकी "जड़" को शितल करने में लगे हुए हैं.

मै तो अभी भी अपनी नमी दादाजी के कहे अनुसार खर्च करता हूँ.

Sunday, April 12, 2009

चाँद की खामोशी


चाँद खामोश क्यों है इतना,
क्या वो सागर की लहरों में खो गया है ?
काश कोई बदल आ जाता, दोनों के बिच में,
मुझे मेरे चाँद की आवाज़ मिल जाती |

बादल भी क्या आया,आते ही बरस गया.
वो भी चाँद के साथ सागर में खो गया |
चाँद तो फ़िर भी वहीं है, 
लेकिन कमबख्त बादल, वो तो सागर का ही हो गया | 

हलाकि, बादल बह गया है सागर की लहरों में,
लेकिन इंतज़ार है मुझे, सुरज की गरम किरणों का | 
ताकि आ जाए वो ( बादल ) ऊपर,
और ढंक ले मेरे चाँद को |

Saturday, April 4, 2009

उफनते सवाल


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जिंदगी है तो मौत भी है,
लेकिन फिर जिंदगी ही क्यू है?
कितने ही आये और चले गए,
अंत क्या है?
और अगर ये अनंत है तो,
इसका मकसद क्या है?
क्या होता अगर जिंदगी ही ना होती?
क्या होता अगर पृथ्वी ही ना होती?
पृत्वी को बनाया किसने और क्यू?
ताकि लोग आये और चले जाये?
क्यू बना दिए जिव को ही जिव का भोजन,
क्यू देदी लोगो को भूक और प्यास?
क्यू तुम्हे खेलने का इतना शौक है,
और बना दिए हमे कठपुतली?
क्यूँ देते हो हमे माँ बाप,
जब हमे बिछड़ना ही है?
जैसे पहला इन्सान आया वैसे सरे लोग आते!
ना होते माँ बाप,
ना ही परिवार,
ना बाप से पाने की टेंशन, 
ना बेटे के लिए जुटाने का टेंशन,
जी लेते खुद के लिए!
ना होते धर्म, ना होती जाती,
ना ही होते ये मार पिट!
क्यूँ बना दिए सब कुछ बिकाऊ ?
पैसे कमाने में जिंदगी चली जाये?
फिर भी पेट ना भरे तो काट लूँ दुसरो की जेबें
कर दू सबको बेघर खुद का घर बसने के लिए!
ना पैसा होता ना आमिर होते,
फिर कोई गरीब बदनसीब ना होता!
मुझे नहीं पता की जिंदगी के साथ मौत क्यू दी?
लेकिन जिंदगी के साथ जिंदगी क्यू नहीं दी?
और यही करना था तो जिंदगी के पहले ही मौत दे दिया होता!