Wednesday, September 8, 2010

दीया तले अँधेरा


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तु प्रचंड रौशनी है,
और मैं घनघोर अँधेरा,
जहाँ तेरा अस्तित्व ना हो,
वहीँ मेरा बसेरा.

ये असंभव मेल भी है संभव,
अगर तु सिमट जरा,
तु बन जा टिमटिमाती दीया,
और मैं तेरे तले अँधेरा.
हमेशा हमेशा के लिए.

Saturday, July 3, 2010

अस्तित्व


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दो चलते हुए खंभे,
उसके उपर एक ट्रांसफ़ॉर्मर,
उसके उपर पांच किलो का एक सुपर कम्प्युटर.
चलती है साँस तो मै मै हुं .
जो रुक गयी साँस तो मै कौन हुं ?

कुछ मछलियों का भोजन,
या एक हंडी बुझी हुई राख,
या पत्थर के बोझ से दबी,
जमीं से तीन फीट नीचे कुछ हड्डियाँ ?

या फिर डाइनिंग हॉल की दिवाल पे,
फोटो फ्रेम में कैद,
सफ़ेद मूंछे फहराते,
दो गज की पगड़ी में,
जकड़ा एक चेहरा ?

Monday, June 14, 2010

किनारा





मन उदास है,
तु जो न पास है.

तेरे ही आसरे,
चले आये किनारे.
मन तुझे हीं पुकारे.
ढूंढे तेरे सहारे.

चली आ, चली आ.
मन उदास है,
तु जो न पास है.

छुप गयी हो कहाँ,
कुछ इशारा तो दो,
कोई निशानी तो दो.
क्यूँ हो खफा,
ऐसी क्या है खता,
जो तेरी एक दरस को,
इतना तडपे हम.
तेरी हीं खोज में,
बावरा ये मन.

चली आ, चली आ.
मन उदास है,
तु जो न पास है.

मन उब रहा है,
इन लहरों से बातें करके,
बादलों में तुझे ढुंढते,
तेरी राह तकते.
अब तो ये भी मुझपे हंसते,
और कहते,
तु नहीं आएगी.
रह गया हुं अकेले,
चली आ चली आ.

मन उदास है,
तु जो न पास है,
चली आ चली आ.

Friday, May 14, 2010

खिड़की के ओट से



कोई तो छुपा है,
खिड़की से ओट लेकर,
और गाड़े हुए है,
अपनी नज़रें मुझपर.

या ये मेरा ख़याल है,
जो पहुँच गया वहां,
ओढ़ ली आकृति,
और रखने लगी है मुझपे हीं नज़र.

मन तो होता है,
झांक लू खिड़की से
और जान लूँ , कि सच क्या है.
फिर सोचता हूँ,
कोई भी हो, क्या फर्क पड़ता है?
करता तो मैं वही हूँ, जो मन होता है.
अरे! कोई तो है जो
मुझे घर में होने का एहसास दिला जाता है.

वर्ना ये घर हीं क्यूँ?

Monday, May 3, 2010

एक अच्छी तराजू तो देना था न पापा





ग्राहक बदल गए, सामान बदल गए,
दूकान भले हीं पुरानी सौंप दी, लेकिन
एक अच्छी तराजू तो देना था न पापा!

कुछ सामान तो तराजू में आते ही नहीं,
कुछ आ भी गए तो इतने भारी,
कि अगर उसके भार का बटखरा रख दूँ ,
तो ये तराजू भी टूट जाए.

नए तो दूर, अब पुराने ग्राहक भी नहीं आते,
जो एक दो आ गए, उनको बिन तौले हीं
मुफ्त में बाटने पड़े सारे सामान.
बच गया मै और आपकी ये दुकान.
और हाँ, ये बिच में लटकती तराजू.

Wednesday, March 31, 2010

हाँ चलो




यदा कदा या सर्वदा,
यहाँ वहाँ या सारा जहाँ ,
कुछ फूलों में या सारी क्यारी में...

क्या?

तुम्हारा एहसास, तुम और तुम्हारी खुशबु...

मतलब?

तुम नहीं समझोगी, शायद समझना भी नहीं चाहती....

ऐसे कैसे?

बस ऐसा ही है,
तेरे में कोई बात है जो तुझे नहीं मालूम...

आगे मै कह देती हूँ,
मै हीरा और तुम जौहरी, और हीरे की पहचान सिर्फ जौहरी को होती है, है ना?


नहीं, हीरा तो पत्थर है और तुम मोम,
लेकिन पिघल मै रहा हूँ तुम्हारी याद में.

चल हट, बाते बनाना तो कोई तुमसे सीखे,

और दिल जलाना तुमसे...

खुल के कहो

तो ये लो...
तुने जो हंसाया कोई और क्या हंसायेगा,
एक बार जो आ गया, वो लौट कर क्या जायेगा.
अंधी है तू जो तुझे दिखाई नहीं देता,
अब मेरा प्यार तुझे संजय ही दिखायेगा.

हम्म, तो ये बात है, लेकिन मैंने तो तुम्हे उस नज़र से कभी देखा ही नहीं

मैंने तो एक नज़र भर के भी नहीं देखा,
फिर भी इन आँखों को सिर्फ तुम हीं दिखती हो....

हम्म, अब समझ में आ रहा है..

क्या?

वही, मै, मेरा एहसास और मेरी खुशबु...

फिर, तुम क्या कहती हो?

सच कहूँ या झूठ?

तुम्हारी हर बात मुझे सच्ची लगती है....

तो सुनो,
तुम हो बहुत भोले, जो इतना भी नहीं समझते,
बरसते हुए बादल, शायद ही कभी गरजते,
बयां कर जाते बहुत कुछ, मगर कभी कुछ ना कहते.
तुम्हारी हर छोटी छोटी बात, और हर एक बात मुझे बहुत ही भाती है,
ऐसा कोई पल नहीं, जिसमे तुम्हारी याद नहीं आती है.
इतने शांत होकर भी इतने नटखट हो,
कभी एकदम बुज़ुर्ग तो कभी बच्चे हो,
लगते बहुत अच्छे हो, मगर एक ही शिकायत है,
कभी अपनी उम्र भी जी लो...


ऐसा क्या?

हाँ..

तो चलो आज,
तुम्हे बाँहों में भर,
जन्नत की शैर कर आयें,
कुछ अधजलों को पूरा जला आयें,
जमीं पे उड़, हवा में तैर आयें,
पानी पे चलें और तेरी आँखों में डूब जायें.
तेरी आँखों में डूब जायें.

हाँ चलो...

Monday, March 29, 2010

कल और आज

कल तक जो बाहें कस लेती थी मुझे, आज क़त्ल करने को बेताब है,
कल जिन बातों में इतनी नमी हुआ करती थी, आज भर गयी उनमे आग है.
कल तक जो मोहब्बत की अलाप करते थे , आज उनके जुबान पे नफरत की राग है,
कल और आज में इतना ही फर्क है तो कैसे कह दूँ कल जन्नत था तो आज अभिशाप है.

Tuesday, January 19, 2010

कोशिश

हवा से तेज़ भागती जिंदगी,
न जाने कितने ही चहरे रोज़ दिखते हैं.

चमक रहे हैं उस सख्स के दांत,
और बिच में लहलहाती जीभ.
बैठा था मेरे बगल वाली सीट पर,
मै खिड़की से बहार झांकते,
वादियों में खोया हुआ बोल पड़ा था ख़ुद से,
प्यार जब पहला प्यार बन जाये तो,
समझ लेना गिनती शुरू हो गयी है,
और उसने फब्बारों से भींगा दी थी मेरी क़मीज |

आकर धुप वाली खिड़की पर बैठ गया,
बाहर स्कूटर पर पीछे बैठा एक,
इससे भी ज्यादा खुश सख्स दिख गया,
निचे उसकी ख़ुशी का कारन भी दिख गया.
हाँथ में मुह के बल लटका मुर्गा.
कितना अंतर था दोनों में -
एक सीधा तो दूसरा उल्टा,
एक ढंका तो दूसरा नंगा.
ज़िन्दगी, एक की हकीकत तो दुसरे के सपने,
एक काटने तो दूसरा कटने.
एक ही समानता थी-
दोनों के मुह में पानी था.

सवाल ये है कि, ये सब अचानक याद कैसे आये.
तुम्हे भुलाने की कोशिश है, इतना भी नहीं जानती !