Friday, May 14, 2010

खिड़की के ओट से



कोई तो छुपा है,
खिड़की से ओट लेकर,
और गाड़े हुए है,
अपनी नज़रें मुझपर.

या ये मेरा ख़याल है,
जो पहुँच गया वहां,
ओढ़ ली आकृति,
और रखने लगी है मुझपे हीं नज़र.

मन तो होता है,
झांक लू खिड़की से
और जान लूँ , कि सच क्या है.
फिर सोचता हूँ,
कोई भी हो, क्या फर्क पड़ता है?
करता तो मैं वही हूँ, जो मन होता है.
अरे! कोई तो है जो
मुझे घर में होने का एहसास दिला जाता है.

वर्ना ये घर हीं क्यूँ?

Monday, May 3, 2010

एक अच्छी तराजू तो देना था न पापा





ग्राहक बदल गए, सामान बदल गए,
दूकान भले हीं पुरानी सौंप दी, लेकिन
एक अच्छी तराजू तो देना था न पापा!

कुछ सामान तो तराजू में आते ही नहीं,
कुछ आ भी गए तो इतने भारी,
कि अगर उसके भार का बटखरा रख दूँ ,
तो ये तराजू भी टूट जाए.

नए तो दूर, अब पुराने ग्राहक भी नहीं आते,
जो एक दो आ गए, उनको बिन तौले हीं
मुफ्त में बाटने पड़े सारे सामान.
बच गया मै और आपकी ये दुकान.
और हाँ, ये बिच में लटकती तराजू.