Sunday, April 12, 2009

चाँद की खामोशी


चाँद खामोश क्यों है इतना,
क्या वो सागर की लहरों में खो गया है ?
काश कोई बदल आ जाता, दोनों के बिच में,
मुझे मेरे चाँद की आवाज़ मिल जाती |

बादल भी क्या आया,आते ही बरस गया.
वो भी चाँद के साथ सागर में खो गया |
चाँद तो फ़िर भी वहीं है, 
लेकिन कमबख्त बादल, वो तो सागर का ही हो गया | 

हलाकि, बादल बह गया है सागर की लहरों में,
लेकिन इंतज़ार है मुझे, सुरज की गरम किरणों का | 
ताकि आ जाए वो ( बादल ) ऊपर,
और ढंक ले मेरे चाँद को |

Saturday, April 4, 2009

उफनते सवाल


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जिंदगी है तो मौत भी है,
लेकिन फिर जिंदगी ही क्यू है?
कितने ही आये और चले गए,
अंत क्या है?
और अगर ये अनंत है तो,
इसका मकसद क्या है?
क्या होता अगर जिंदगी ही ना होती?
क्या होता अगर पृथ्वी ही ना होती?
पृत्वी को बनाया किसने और क्यू?
ताकि लोग आये और चले जाये?
क्यू बना दिए जिव को ही जिव का भोजन,
क्यू देदी लोगो को भूक और प्यास?
क्यू तुम्हे खेलने का इतना शौक है,
और बना दिए हमे कठपुतली?
क्यूँ देते हो हमे माँ बाप,
जब हमे बिछड़ना ही है?
जैसे पहला इन्सान आया वैसे सरे लोग आते!
ना होते माँ बाप,
ना ही परिवार,
ना बाप से पाने की टेंशन, 
ना बेटे के लिए जुटाने का टेंशन,
जी लेते खुद के लिए!
ना होते धर्म, ना होती जाती,
ना ही होते ये मार पिट!
क्यूँ बना दिए सब कुछ बिकाऊ ?
पैसे कमाने में जिंदगी चली जाये?
फिर भी पेट ना भरे तो काट लूँ दुसरो की जेबें
कर दू सबको बेघर खुद का घर बसने के लिए!
ना पैसा होता ना आमिर होते,
फिर कोई गरीब बदनसीब ना होता!
मुझे नहीं पता की जिंदगी के साथ मौत क्यू दी?
लेकिन जिंदगी के साथ जिंदगी क्यू नहीं दी?
और यही करना था तो जिंदगी के पहले ही मौत दे दिया होता!