Friday, May 14, 2010

खिड़की के ओट से



कोई तो छुपा है,
खिड़की से ओट लेकर,
और गाड़े हुए है,
अपनी नज़रें मुझपर.

या ये मेरा ख़याल है,
जो पहुँच गया वहां,
ओढ़ ली आकृति,
और रखने लगी है मुझपे हीं नज़र.

मन तो होता है,
झांक लू खिड़की से
और जान लूँ , कि सच क्या है.
फिर सोचता हूँ,
कोई भी हो, क्या फर्क पड़ता है?
करता तो मैं वही हूँ, जो मन होता है.
अरे! कोई तो है जो
मुझे घर में होने का एहसास दिला जाता है.

वर्ना ये घर हीं क्यूँ?

8 comments:

  1. really nice.....kavi ban gaye ho ab tum.....software is secondary occupation... :)

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  2. बहुत ही सरल सोच अउर बढ़िया लेखन.. बहुत अच्छा...

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  3. lines with deep meaning...!! Good one though..

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  4. wah kya baat hai.. dil khush ho gaya..
    अरे! कोई तो है जो
    मुझे घर में होने का एहसास दिला जाता है.

    kya line hai.. lage rahiye bhrata

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