Sunday, December 20, 2009

कल्पना या हक़ीकत

तु कल्पना है या हक़ीकत, मै तो बस बहे जा रहा हूँ.
ना सुध है ख़ुद की ना हीं जमीं की, मै बिन पंख उड़े जा रहा हूँ.

बांध ले अपनी डोरी से बना ले मुझे पतंग.
इस बेढंगी जिंदगी को देदे नए ढंग.
तु नहीं तो कोई और नहीं, तेरी डोर नहीं तो कोई डोर नहीं.
उड़ता हीं रहूँगा इसी तरह.

तु कल्पना है या हक़ीकत, मै तो बस बहे जा रहा हूँ.
ना सुध है ख़ुद की ना हीं जमीं की, मै बिन पंख उड़े जा रहा हूँ.

बचपन से मै तुमसे बातें करता आ रहा हूँ.
अंधियारे में तेरा साया तकता आ रहा हूँ.

इस उदास मन को तु देदे नए उमंग.
ठहरे हुए पानी में लहरा दे तरंग.
तु नहीं तो कोई और नहीं, ख़ुद से आना कोई ज़ोर नहीं.
राहें देखता हीं रहूँगा इसी तरह.

तु कल्पना है या हक़ीकत, मै तो बस बहे जा रहा हूँ.
ना सुध है ख़ुद की ना हीं जमीं की, मै बिन पंख उड़े जा रहा हूँ.

6 comments:

  1. Good one!!......writer has beautifully woven the words to create an excellent, poignant and mellifluous piece of poem to exhibit the agility of mind and human emotions associated with it.......keep it up!!!!!!

    ReplyDelete
  2. bahut hi badhiya bhaia
    is samay meri life bhi aisi hi hai :)

    ReplyDelete
  3. Wow aisa lag raha hai jaise aap apani rachana se kalpana ko haqeeqat me la diye hai....kya bat hai bahut badiyan

    ReplyDelete
  4. This excellent website certainly has all of the info I wanted
    about this subject and didn't know who to ask.

    My blog :: openbox S9 Hd pvr

    ReplyDelete