Monday, June 14, 2010

किनारा





मन उदास है,
तु जो न पास है.

तेरे ही आसरे,
चले आये किनारे.
मन तुझे हीं पुकारे.
ढूंढे तेरे सहारे.

चली आ, चली आ.
मन उदास है,
तु जो न पास है.

छुप गयी हो कहाँ,
कुछ इशारा तो दो,
कोई निशानी तो दो.
क्यूँ हो खफा,
ऐसी क्या है खता,
जो तेरी एक दरस को,
इतना तडपे हम.
तेरी हीं खोज में,
बावरा ये मन.

चली आ, चली आ.
मन उदास है,
तु जो न पास है.

मन उब रहा है,
इन लहरों से बातें करके,
बादलों में तुझे ढुंढते,
तेरी राह तकते.
अब तो ये भी मुझपे हंसते,
और कहते,
तु नहीं आएगी.
रह गया हुं अकेले,
चली आ चली आ.

मन उदास है,
तु जो न पास है,
चली आ चली आ.

9 comments:

  1. Bohut achcha likhe hein :) very nice....

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  2. dude...U have framed it so well that it relates to so many guys real life....u rocked again...

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  3. Thanks Gandharva :)

    @Rajan - dude, tum kavita bhi padhte ho, jaanka khushi hui and thanks for ur appreciation :)

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  4. badiya likhe ho, vinayak here.
    yeh kavita hain ya ise shayari khate hain?

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  5. Hey Vinayak!

    Thanks man!
    Even I donno what it is, i just wrote whatever my pen wrote.

    Where are you these days? What are you up to? call/ping/email me as and when u get to visit this blog back.

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